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विसंगति (Absurd)


तेईस की उम्र है,
ख़्वाबों का मेले में,
जहाँ हर ख़्वाब अधूरा है,
ख़्वाहिशों के झमेलें में।

सुबह कप में अधूरी चाय,
रात में तन्हाई का बोझिल आसमान,
जवाब ढूँढता हूँ,
मगर नए सवाल सुनाते हैं फरमान।

रास्ता शायद लंबा है,
मगर क़दम जैसे हिचकिचाते हैं,
मन कहता है,आगे बढ़ो!
दिल कहता है, रुक जाओ |

वो मुस्कुराहट कहीं खो गई है,
किताबें खुलती हैं,
पर लफ़्ज़ नज़रों से ओझल हैं,
कलम पकड़ता हूँ,
पर स्याही बिखर जाती है,
जैसे कुछ यादें, बिना इजाज़त,
हर खामोशी में उतर आती हैं।

ज़िंदगी की शक्ल अजीब है,
न महफ़िल पूरी, न तन्हाई मुकम्मल है ,
बस उलझन की गली में,
ख़ुद अपने साए से बातें किए फिरता हूँ।

मैं सोचता हूँ,
क्या मैं ही रास्ता हूँ,
या मैं हूँ भटका राही?
क्या वो मेरी हक़ीक़त है,
या सिर्फ़ तवहम्म थी?

और तब समझ आता है,
तेईस कोई उम्र नहीं,
ये तो आईना है,
जहाँ मोहब्बत, तन्हाई और उम्मीद
सब एक-दूसरे से टकराकर
टूटे हुए टुकड़े बन जाते हैं…एक विसंगति।
जहाँ दिल और दिमाग़
कभी ग़ालिब की ग़ज़ल,
कभी अनसुनी चीख़ बन जाते हैं।

-अंकित कुमार 
© inkit_poetry 

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